नई दिल्ली। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद अब फिर से केंद्रीय जांच एजेंसी ‘सीबीआई’ की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं। राजनीतिक दलों का आरोप है कि जांच एजेंसी, केंद्र सरकार के दबाव में काम करती है। आप के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने कहा, मुझे ईडी और सीबीआई दे दो, मैं दो घंटे के भीतर मोदी, अमित शाह और अदाणी को गिरफ्तार कर लूंगा। जब आपके पास जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करने की शक्ति होगी, तो आप कुछ भी कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट में 10 साल से ‘सीबीआई’ की वैद्यता का केस चल रहा है। 2013 में गुवाहाटी हाई कोर्ट ने ‘केंद्रीय जांच एजेंसी’ को असंवैधानिक करार दिया था। इस मामले की पैरवी करने वाले सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता डॉ. एलएस चौधरी कहते हैं, इस केस पर कोई नहीं बोलता। सरकार भी इस केस में कुछ नहीं करना चाहती। एक तरह से इसकी रिपोर्टिंग को ही शांत कर दिया गया है। हैरानी की बात तो ये है कि वे विपक्षी दल, जो आए दिन सीबीआई के दुरुपयोग को लेकर आवाज उठाते रहते हैं, मगर वे सुप्रीम कोर्ट में लंबित केस के बाबत कुछ नहीं बोलते। संसद में भी इस संबंध में सवाल नहीं उठाया जाता।
सीबीआई को लेकर अनेक राज्य वापस ले चुके हैं सहमति
इस केस से पहले अनेक राज्य ‘सीबीआई’ के कामकाज और राजनीतिक हस्तक्षेप को लेकर सवाल उठा चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सीबीआई निदेशक ने कहा था कि पश्चिम बंगाल, राजस्थान, झारखंड, महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, छत्तीसगढ़ और मिजोरम ने जांच एजेंसी को दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली है। इसका मकसद, केंद्रीय जांच एजेंसी के कामकाज में बाधा डालना है। देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले बैंक धोखाधड़ी से संबंधित लगभग 78 फीसदी मामलों की जांच, विभिन्न राज्यों द्वारा सहमति न देने की वजह से शुरू नहीं हो पा रही है। अनुरोध पत्र, राज्यों के पास लंबित पड़े हैं। सीबीआई जांच के मामले में राज्यों द्वारा आम सहमति वापस लेने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंता जताई है। साल 2013 में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने नरेंद्र कुमार बनाम भारत संघ के मामले में दिए गए एक महत्वपूर्ण फैसले में ‘सीबीआई’ को असंवैधानिक करार दे दिया था। केंद्र ने हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे ले लिया।
क्या यही है राजनीतिक हस्तक्षेप का बड़ा कारण
पश्चिम बंगाल में 2019 के दौरान सीबीआई टीम को कोलकाता पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह एक बड़ी घटना थी। राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते सुप्रीम कोर्ट तक ने देश की टॉप केंद्रीय जांच एजेंसी को ‘तोता’ कह दिया था। वजह, जिस एक्ट के तहत सीबीआई का गठन हुआ यानी ‘दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट-1946’ में ‘सीबीआई’ का नाम ही नहीं लिखा है। जब यह संवैधानिक संस्था नहीं है, तो फिर इसे पूर्ण स्वायत्तता कहां से मिलती। इसके चलते ही गुवाहाटी हाईकोर्ट ने जांच एजेंसी को असंवैधानिक करार दे दिया था। लिहाजा, केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट से स्टे मिल गया, इसलिए सीबीआई अपना काम कर पा रही है। जिन राज्यों ने सीबीआई के मामले में केंद्र को दी अपनी सहमति वापस ले ली है, उसके पीछे केंद्रीय जांच एजेंसी के पास संवैधानिक दर्जा न होना एक बड़ा कारण रहा है। सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता डॉ. एलएस चौधरी कहते हैं कि गुवाहाटी हाईकोर्ट का फैसला बहुत महत्वपूर्ण था। केंद्र सरकार ने तुरत-फुरत उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 9 नवंबर 2013 को दूसरे शनिवार की छुट्टी के दिन स्थगन आदेश ले लिया था। खास बात, तब से लेकर आज तक सुप्रीम कोर्ट में वह अपील पेंडिंग है। सरकार हर बार नई तारीख ले लेती है। यही वजह है कि ‘सीबीआई’ तोते की छवि से बाहर नहीं निकल पाई। उस पर दुरुपयोग का आरोप लगता रहता है।
यहां पर ‘सीबीआई’ के गठन का प्रावधान ही नहीं
अधिवक्ता डॉ. एलएस चौधरी बताते हैं, दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट (डीएसपीई) एक्ट-1946, के तहत सीबीआई के गठन या उसके अधिकार क्षेत्र की बात कही जाती है। खास बात है कि डीएसपीई एक्ट में ‘सीबीआई’ शब्द ही नहीं लिखा है। इस एक्ट में संशोधन हुए, मगर सीबीआई नाम फिर भी शामिल नहीं हो सका। संविधान के किसी भी चैप्टर में सीबीआई के गठन का कहीं कोई प्रावधान ही नहीं है। चौधरी के मुताबिक, यही वजह है कि ‘केंद्रीय जांच एजेंसी’ को आज भी संवैधानिक दर्जा हासिल नहीं है। सीबीआई एक अप्रैल 1963 को एक एग्जीक्यूटिव ऑर्डर के तहत बनी थी। संविधान सभा के सदस्य नजीरुददीन अहमद और डॉ. बीआर अंबेडकर ने सीबीआई जैसी संस्था होने की बात कही थी। उनका कहना था कि ऐसी एजेंसी केंद्र सरकार की ‘संघ सूची’ के विषयों में शामिल रहेगी। इसका कामकाज क्रिमिनल केस दर्ज करना या अपराधी को गिरफ्तार करना नहीं होगा। यह एजेंसी केंद्र सरकार के पास विभिन्न अपराधों की जो सूचनाएं आती हैं, उन्हें क्रॉस चेक कर सकती है। एजेंसी के पास इंटर स्टेट अपराधों की तुलना कर उसकी रिपोर्ट केंद्र सरकार को देने का अधिकार था। पुलिस, जो कि ‘राज्य सूची’ का विषय है, उसकी तर्ज पर यह जांच एजेंसी न तो किसी को गिरफ्तार कर सकती है और न ही किसी से पूछताछ। आज सीबीआई द्वारा किसी को गिरफ़्तार करने, जांच करने या पूछताछ का जो भी अधिकार मिला है, वह डीएसपीई एक्ट के तहत संभव हो सका है।
अदालत के आदेश से मिली सीबीआई को मजबूती
सुप्रीम कोर्ट ने विनीत नारायण मामले में सीबीआई निदेशक को थोड़ी मजबूती देने का काम किया था। इस फैसले के बाद निदेशक का कार्यकाल न्यूनतम दो साल कर दिया गया। इसके बाद यह उम्मीद की गई कि अब जांच एजेंसी का निदेशक केंद्र सरकार के दबाव में आकर काम नहीं करेगा। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद ही सीबीआई निदेशक की नियुक्ति के लिए एक चयन समिति का गठन हो सका। इसके बावजूद सीबीआई पर राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप लगते रहे। इतना ही नहीं, इस एजेंसी के राजनीतिक इस्तेमाल की बात कहकर कई राज्यों ने सीबीआई को अपने राज्य में जांच करने और छापा मारने के लिये दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली। इन राज्यों का आरोप था कि सीबीआई निष्पक्ष जांच एजेंसी नहीं है। यह एजेंसी सरकार के इशारे पर राजनीतिक विरोधियों को जानबूझकर प्रताड़ित करती है। सीबीआई के पूर्व निदेशक सरदार जोगिंदर सिंह ने अपने साक्षात्कार में कहा था, जांच एजेंसी के पास एक वकील रखने का अधिकार तो है नहीं। गिरफ्तारी हो या चार्जशीट, हर बात के लिए सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती है। इस इंतजार में कई बार साक्ष्य नष्ट हो जाते हैं। अफसोस की बात है कि आजादी के इतने सालों बाद भी यह जांच एजेंसी डीएसपीई एक्ट के तहत चल रही है।
सीबीआई की स्वायत्तता के लिए करना होगा संविधान संशोधन
सीबीआई को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करने के लिए इसे संवैधानिक दर्जा देना होगा। सरदार जोगिंदर सिंह ने कहा था, इस एजेंसी को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने का एकमात्र यही तरीका है। डॉ. एलएस चौधरी कहते हैं कि दिल्ली हाई कोर्ट ने जयदेव बनाम भारत सरकार केस में कहा था, सीबीआई का अपना डायरेक्टर प्रोसिक्यूशन होगा। बाद में जांच एजेंसी ने इसकी स्वायत्तता पर भी अंकुश लगाकर इसे पुलिस नियमों के मुताबिक काम लेना शुरू कर दिया। सीबीआई को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए सरकार को संविधान संशोधन करना होगा। इसके लिए दोनों सदनों में अलग-अलग दो तिहायी बहुमत से प्रस्ताव पास होना जरूरी है। सीबीआई के पूर्व निदेशक यूएस मिश्रा ने एक साक्षात्कार में कहा था, पूर्ण स्वायत्तता न होने के कारण जांच एजेंसी को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। पूर्व दूरसंचार मंत्री सुखराम के मामले में निदेशक को पीएम ने बड़ी मुश्किल से मिलने का समय दिया था। पूर्व निदेशक आरके राघवन ने भी स्वीकारा था कि जांच एजेंसी पर राजनीतिक दबाव रहता है। हर बात में मंजूरी लेनी पड़ती है, मामलों की जांच में देरी होती है, नतीजा कोर्ट की फटकार खाओ। इससे बचाव का एक ही तरीका है कि जांच एजेंसी को पर्याप्त स्वायत्तता और अधिकार दिए जाएं।