देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध होते रहते थे। एक बार दैत्य गुरु शुक्राचार्य तपस्या करने चले गए और दैत्यों का मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं था। देवताओं ने इस अवसर का लाभ उठाकर दैत्यों पर धावा बोल दिया। शुक्राचार्य की माता और महर्षि भृगु की पत्नी पुलोमा का दैत्यों पर बड़ा स्नेह था। इसलिए दैत्य भागकर र महर्षि भृगु के आश्रम में आ गए और उन्होंने पुलोमा से रक्षा की याचना की। संयोग से, उस समय भृगु आश्रम में नहीं थे। पुलोमा ने दैत्यों को निश्चिंत रहने को कहा और उन्हें आश्रम में शरण दे दी। देवताओं को पता लगा, तो उन्होंने भगवान विष्णु को साथ लेकर भृगु के आश्रम पर आक्रमण कर दिया। दैत्य हमले के लिए तैयार नहीं थे। वे सब घबराकर पुलोमा के पास दौड़े तो पुलोमा, देवताओं और दैत्यों के बीच आकर खड़ी हो गईं। ‘हमारा आपसे कोई वैर नहीं हैं,’ विष्णु ने पुलोमा से कहा। ‘हम दैत्यों का संहार करने आए हैं। कृपया मार्ग से हट जाइए।’
पुलोमा ने विष्णु से कहा, ‘ये मेरे पुत्र शुक्र के शिष्य हैं और मैंने इन्हें रक्षा का वचन दिया है। मेरे रहते. आप दैत्यों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते।’ विष्णु ने हाथ जोड़कर पुलोमा से विनती की, ‘देवी, मैं आपके वचन का सम्मान करता हूं। परंतु दैत्य अनाचारी और निरंकुश हैं। शुक्राचार्य के संरक्षण में ये निरंतर उच्छृंखल होते जा रहे हैं। प्रकृति में संतुलन और व्यवस्था बनाए रखने के लिए इनका संहार आवश्यक है। शुक्राचार्य अपना दायित्व निभाते हैं, तो आप हमें भी अपना कार्य करने दीजिए।’
विष्णु के समझाने पर भी पुलोमा नहीं मानीं। यह देखकर देवताओं ने पुलोमा पर आक्रमण करना चाहा, किंतु पुलोमा ने समस्त देवताओं को स्तंभित कर दिया। हालांकि विष्णु पर पुलोमा की शक्ति का प्रभाव नहीं पड़ा। फिर भी वह पुलोमा को देखकर अचंभित थे। उन्होंने पुलोमा से पुनः विनती करते हुए मार्ग से हटने और दैत्यों को शरण न देने का आग्रह किया। परंतु पुलोमा अपने निश्चय पर अडिग रहीं। यहां तक कि पुलोमा ने देवताओं को भस्म करने की धमकी दे डाली।
विष्णु समझ गए कि पुलोमा के रहते दैत्यों का संहार संभव नहीं होगा। भगवान ने आंखें मूंदी और दिव्य सुदर्शन चक्र का आह्वान किया। अगले ही पल विष्णु की तर्जनी पर सुदर्शन चक्र प्रकट हो गया। भगवान विष्णु ने उस चक्र से अनेक राक्षसों और दुष्टों का संहार किया था, किंतु इस बार उनके सामने एक स्त्री थी और वह भी कोई साधारण स्त्री नहीं, अपितु महर्षि भृगु की पत्नी! धर्मसंकट का क्षण था। अधर्म और अनाचार किसी भी रूप में सामने आए, उसे मिटाना भगवान अपना कर्तव्य मानते हैं।
विष्णु जानते थे कि पुलोमा का संहार किए बिना उनके लिए धर्म की अनुपालना करना संभव नहीं था। विष्णु ने निर्णय ले लिया था। अगले ही क्षण सुदर्शन चक्र ने भृगु-पत्नी पुलोमा का सिर काटकर नीचे गिरा दिया। विष्णु के हाथ से स्त्री-वध हो गया था। उन्हें इसका परिणाम पता था, परंतु धर्म-रक्षक विष्णु अपने स्थान पर अडिग खड़े मुस्कराते रहे। उसी समय महर्षि भृगु ने आश्रम में प्रवेश किया। पुलोमा का कटा शीश देखकर भृगु की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। उन्होंने विष्णु से कहा, ‘प्रभु ! यह आपने क्या किया? स्त्री-वध का पाप करके आपको क्या मिला?’
‘हे महर्षि,’ विष्णु ने शांत भाव से कहा, ‘मेरी दृष्टि में पुरुष और स्त्री में कोई भेद नहीं है। मैं केवल धर्म और अधर्म का अंतर समझता हूं। आपकी पत्नी पुलोमा धर्म की रक्षा में बाधा उत्पन्न कर थीं, इसलिए मुझे इनका वध करना पड़ा।’
‘हे नारायण, आपने मुझे
आपको भी जो पीड़ा पहुंचाई है वही पीड़ा अह आपको भी भोगनी होगी। मैं आपको शाप देता हूं कि जिस तरह मैं पत्नी के वियोग से दुखी हूं, उसी तरह आपको मनुष्य रूप में जन्म लेकर पत्नी-वियोग का कष्ट सहन करना पड़ेगा। विष्णु ने हाथ जोड़कर कहा, ‘मुझे आपका शाप स्वीकार है! भृगु के इसी शाप के फलस्वरूप, विष्णु ने त्रेता युग में दशरथ-नंदन राम के रूप में जन्म लिया और रावण द्वारा सीता के अपहरण के बाद राम (विष्णु) को पत्नी-वियोग का कष्ट भोगना पड़ा।