छत्तीसगढ़: यहां होली के आस-पास होती हैं अनोखी शादियां, लोग कीचड़ में लोटकर करते हैं बरातियों का स्वागत

अंबिकापुर। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के मैनपाट में माझी जनजाति के लोग बरातियों का स्वागत सज धजकर नहीं बल्कि कीचड़ में लोटकर करते हैं। होली पर्व के आसपास माझी जनजाति के युवक-युवतियों का विवाह होता है। माझी जनजाति के लोगों के गोत्र पशु, पक्षियों के नाम पर हैं। इसमें भैंसा, मछली, नाग, सुगा (तोता) आदि हैं।

गोत्र के नाम के अनुरूप विवाह में परंपरा का निर्वहन किया जाता है। बुधवार को भी मैनपाट के नर्मदापुर में माझी जनजाति परिवार में विवाह संपन्न हुआ। यहां के बीरसाय माझी की पोती के विवाह में बरात आई थी। वर्षों पुरानी परंपरानुसार सारे अनुष्ठान हुए।

कन्या पक्ष के लोगों ने बरात के स्वागत के लिए मिट्टी मंगाकर रास्ते में पलटकर कीचड़ में बदल दिया। उसके बाद कन्या के परिवार में जितने भी पुरुष सदस्य थे, वे भैंस के समान कीचड़ से लथपथ होकर बरातियों के पास पहुंचे। परंपरागत वाद्य यंत्रों के साथ बरातियों के सामने जमकर नृत्य किया।

25 हजार से ज्यादा माझी-मझवार जनजाति के लोग

दूल्हे को तेल, हल्दी लगाते हुए मंडप में ले गए। यहां विवाह की रस्म पूरी हुई। मैनपाट के पहाड़ी और तराई इलाकों में लगभग 25 हजार से ज्यादा माझी-मझवार जनजाति के लोग कई पीढ़ियों से निवास कर रहे हैं। अभावों के बीच जीवन यापन करने वाले माझी जनजाति के लोगों की परंपरा आधुनिकता के इस दौर में भी जीवित है।

पशु-पक्षियों की आवाज भी निकालते हैं

माझी जनजाति के लोग वर्षों से अपनी परंपराओं, मान्यताओं से जुड़े हैं। सुगा गोत्र वाले माझी जनजाति परिवार के लोग विवाह के शुभ अवसर पर तोते की आवाज निकालते हैं। इस अंचल में तोते को सुगा के नाम से जाना जाता है।

यह अलग बात है कि आधुनिक युग में उनकी परंपरा का वीडियो इंटरनेट मीडिया पर प्रसारित हो रहा है। आज भी वे इस परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं। ऐसा करने के पीछे उनका अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान का भाव होता है। उनका मानना है कि बरातियों का स्वागत गोत्र के अनुसार करने से वे सामने वाले परिवार को अपने गौरव से अवगत कराते हैं।

भैंस बने युवाओं को नियंत्रित करने चरवाहा भी

माझी जनजाति की परंपरा का वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो रहा है। जिस प्रकार कीचड़ में घुसे भैंसों को बाहर निकालने के लिए चरवाहा अथवा भैंस मालिक मेहनत करता है उसी का स्वरूप परंपरा में भी दिखता है।

एक व्यक्ति चरवाहा बनकर कीचड़ से लथपथ लोगों को नियंत्रित करने के साथ ही एक निश्चित समयावधि के बाद नहलाता भी है। भैंसों के समान आपस में झगड़ने के प्रतीकात्मक स्वरूप में इन्हें अलग करने का काम भी यही व्यक्ति करता है।

परंपरा निर्वहन का उद्देश्य यह भी

होली त्योहार में जब चहुंओर रंगों का उल्लास होता है तब मैनपाट में माझी समाज के लोग विवाह में कीचड़ से सराबोर होकर आनंदित होते हैं।माझी जनजाति के लोग प्रकृति से जुड़े हुए हैं।कीचड़ पर लेटने और नृत्य करने के पीछे एक मान्यता यह भी है कि आपस में वे घुल मिल जाते हैं।

संबंधों में और प्रगाढ़ता आती है। अपने तीज त्यौहारों और उत्सवों में गोत्र के अनुरूप ही प्रतिरूप बनकर आयोजन का आनंद उठाते हैं। इससे इनका उद्देश्य अपने गोत्र के नाम को आगे लेकर जाना है। वर्तमान पीढ़ी को वर्षों पुरानी परंपरा से अवगत कराना भी इसका एक उद्देश्य है।