’’को नृप होउ हमहि का हानी’’ की कहावत अब इसलिए पुरानी हो गई क्योंकि यह धारणा आम आदमी में तब होती थी, जब राजा-महाराजाओं और सामंतों का जमाना था, जो कि वंशानुगत या तलवार की नोक पर सत्ता में काबिज होते थे और प्रजा की नियति केवल शासित होने की होती थी। लेकिन आज प्रजा ही राजा है और वही अपनी इच्छा और विवेक से अपनों ही में से चुनाव के द्वारा अपना राजा चुनती है, इसलिए चुनाव के प्रति जनता में भारी जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही है।
वैसे भी भारत में लोगों की सबसे अधिक जिज्ञासा वाले विषयों में क्रिकेट और राजनीति ही शामिल है। चूंकि राजनीति में चमत्कार होते रहते हैं और चुनाव किसी को फर्श से अर्श पर तो किसी को अर्श से फर्श पर बिठा देते हैं। यानी कि राजा को रंक और रंक को राजा बना देते हैं। यही नहीं सत्ता की हनक के साथ ही राजनीति आज सर्वाधिक कमाई वाला व्यवसाय हो गया है, इसलिए लोगों की चुनाव नतीजों में बेहद रुचि होना स्वाभाविक ही है, इसीलिए टेलिविजन चैनल वाले और मीडिया के अन्य अंग कुछ व्यावसायिक ऐजेंसियों से ‘एग्जिट पोल’ कराते हैं जो ‘एक्जेक्ट पोल’ से पहले आम आदमी का ध्यान आकर्षित करा कर अपनी टीआरपी या दर्शक संख्या बढ़ाने के लिए होते हैं।
दरअसल, ये कभी सटीक या एक्जेक्ट होते हैं तो कभी पूरी तरह फेल भी हो जाते हैं, इसलिए राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनावों के लिए कराए गए‘एग्जिट पोल्स’ से राजनीतिक दलों और उनके समर्थकों को न तो ज्यादा खुश होने और ना ही गमगीन होने की जरूरत है, उन्हें 3 दिसंबर को आने वाले ’’ऐग्जेक्ट पोल’’ का ही इंतज़ार करना चाहिए।
ताजा एग्जिट पोल नतीजों में इतना विरोधाभास
हमारे देश में कई एजेंसियां जनमत एकत्र कर उनका विश्लेषण करती हैं। चुनावों में जनता की नब्ज टटोलने के लिए किए गए एग्जिट पोल का लोग बेसब्री से इंतजार भी करते हैं। इन एजेंसियों में चाणक्य, सी-वोटर और माइ एक्सिस जैसी कुछ एजेंसियां काफी लोकप्रिय भी हैं। लेकिन आप अगर ताजा विधानसभा चुनावों को लेकर इन तीनों एजेंसियों के एग्जिट पोल की तुलना करें तो जमीन आसमान का जैसा अंतर नजर आता है।
एबीपी सी-वोटर मध्य प्रदेश में भाजपा को 88 से लेकर 112 सीट और कांग्रेस को 113 से लेकर 137 के बीच सीटें दे रहा है तो चाणक्य भाजपा को 151 और कांग्रेस को मात्र 74 सीटें दे रहा है। राजस्थान में भी वही हाल है। वहां एबीपी सी-वोटर भाजपा को 94 से लेकर 114 सीट तक और कांग्रेस को 71 से 91 तक सीटें दे रहा है जबकि चाणक्य के अनुसार राजस्थान में भाजपा को 89 और कांग्रेस को 101 सीटें मिल रही हैं।
ऐसा ही विरोधाभास अन्य एजेंसियों के एग्जिट पोलों में भी है। जब स्यंभू जनता की नब्ज टटोलू एजेंसियों में इतना भारी अन्तर हो तो फिर वोटर आखिर विश्वास करे तो करे किस पर ?
जब एग्जिट पोल गलत साबित हुए-
एग्जिट पोलों से अक्सर चुनाव परिणामों से पहले जनता की रुचि का रुझान पता चल जाता है। लेकिन ऐसे भी कई उदाहरण हैं जबकि एग्जिट पोल चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी करने में पूरी तरह झूठे साबित हुए हैं। ओपीनियन पोल तो लगता है राजनीतिक दलों के चुनावी प्रोपेगण्डा के ही हिस्से हो गए हैं।
बहरहाल एग्जिट पोल की बात करें तो उत्तर प्रदेश विधानसभा के 2017 के चुनाव में एग्जिट पोल ने मिश्रित परिणाम की भविष्यवाणी की थी, कुछ ने विभिन्न पार्टियों के बीच कड़ी टक्कर का संकेत दिया। लेकिन जब परिणाम घोषित हुए तो वहां भाजपा ने भारी बहुमत से जीत हासिल की।
2017 में गुजरात के एग्जिट पोलों ने राज्य में भाजपा की भारी जीत की भविष्यवाणी की थी और पार्टी को लगभग 112-116 सीटें मिलने की भविष्यवाणी की थी। जबकि पूर्वानुमानों के विपरीत, भाजपा को 182 में से 99 सीटें ही मिलीं।
दूसरी तरफ कांग्रेस ने वहां 77 सीटें जीतीं जबकि वहां अधिकतम 65 सीटें जीतने का अनुमान लगाया गया था। इसी तरह बिहार विधानसभा के 2015 के चुनाव में एग्जिट पोल में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए और ग्रैंड अलायंस (जेडी (यू), राजद और कांग्रेस के नेतृत्व वाले) के बीच कड़ी टक्कर की बात कही थी। हालाँकि, एग्जिट पोल के अनुमानों के विपरीत, ग्रैंड अलायंस ने निर्णायक जीत हासिल की।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 का उदाहरण भी हमारे सामने है। एग्जिट पोल में कई तरह की भविष्यवाणियां दिखाई गईं, जिनमें से कुछ ने सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और भारतीय जनता पार्टी के बीच करीबी मुकाबले का संकेत दिया था। हालांकि, टीएमसी ने जबरदस्त जीत हासिल की और अधिकांश एग्जिट पोल के अनुमान ध्वस्त हो गए।
सन् 2016 में तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में भी एग्जिट पोल में अलग-अलग अनुमान पेश किए गए, कुछ में एआईएडीएमके को संभावित बढ़त का संकेत दिया गया और कुछ में कड़ी टक्कर का संकेत दिया गया। वास्तविक नतीजों में एआईएडीएमके को कई एग्जिट पोल के पूर्वानुमानों को पार करते हुए बड़े अंतर से जीतते देखा गया।
क्यों एग्जेक्ट नहीं होते एग्जिट पोल?
ये उदाहरण भारत में चुनाव परिणामों की सटीक भविष्यवाणी करने में एग्जिट पोल के सामने आने वाली चुनौतियों को उजागर करते हैं। विविध जनसांख्यिकी, क्षेत्रीय जटिलताएं, मतदाता व्यवहार और गठबंधन में बदलाव जैसे अनेक कारक एग्जिट पोल अनुमानों और वास्तविक चुनाव परिणामों के बीच सटीकता को संदिग्ध बनाते हैं। इसलिए, हालांकि एग्जिट पोल अक्सर रुझान तो ठीक ही बताते हैं लेकिन वे हमेशा अंतिम चुनावी परिणाम के विश्वसनीय संकेतक नहीं होते हैं।
चुनाव एग्जिट पोल मतदाताओं का मतदान केंद्रों से बाहर निकलने के तुरंत बाद लिया गया सर्वेक्षण है। जबकि वास्तविक मतदाताओं द्वारा मतदान करने से पहले किए गए इसी तरह के सर्वेक्षण को प्रवेश सर्वेक्षण या इंटेंस पोल कहा जाता है।
पोलस्टर या चुनावी सर्वेक्षक आम तौर पर मीडिया के लिए काम करने वाली निजी कंपनियां होती हैं जो चुनाव के नतीजों के बारे में शुरुआती संकेत पाने के लिए एग्जिट पोल करती हैं, क्योंकि कई चुनावों में वास्तविक परिणाम गिनने में कई घंटे लग सकते हैं।
एग्जिट पोल की शुरुआत कहां से?
एग्जिट पोल की उत्पत्ति का श्रेय विभिन्न व्यक्तियों और अनुसंधान संगठनों को दिया जा सकता है जिन्होंने समय के साथ इस पद्धति के विकास और परिशोधन में योगदान दिया। विभिन्न शोधकर्ताओं और संगठनों द्वारा उपयोग की जाने वाली तकनीक के रूप में इसके विकास के कारण किसी एक वास्तविक आविष्कारक या एग्जिट पोल के संस्थापक की पहचान करना चुनौतीपूर्ण है।
हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका में आधुनिक एग्जिट पोलिंग तकनीकों को लोकप्रिय बनाने और परिष्कृत करने का श्रेय वॉरेन मिटोफ्स्की और जोसेफ वैक्सबर्ग को दिया जाता है। मिटोफ्स्की, एक अमेरिकी सर्वेक्षणकर्ता, को अक्सर एग्जिट पोलिंग के क्षेत्र में अग्रणी माना जाता है। उन्होंने एग्जिट पोल पद्धतियों को विकसित करने और मानकीकृत करने, उन्हें अधिक विश्वसनीय और सटीक बनाने पर काम किया।