छत्तीसगढ़ः रावण दहन की अनोखी परंपरा, लंकेश्वरी देवी करती हैं लंकेश की परिक्रमा, तभी होता है दहन; जानिए यहाँ के शाही दशहरे का इतिहास 

देवभोग का शाही दशहरा। - Dainik Bhaskar

गरियाबंद। छत्तीसगढ़ अपनी अनोखी परंपराओं के लिए जाना जाता है। विजयादशमी के मौके पर ऐसी ही अनोखी परंपरा देखने को मिलती है गरियाबंद जिले के देवभोग में, जहां लंकेश्वरी देवी रावण की परिक्रमा करती हैं, उसके बाद ही लंकेश का दहन होता है। जानकारी के मुताबिक, 16वीं शताब्दी में कलिंग के राजा लंकेश्वरी देवी की मूर्ति लंका से भारत लेकर आए थे। इनकी पूजा मां दुर्गा और मां काली के रूप में की जाती है।

देवभोग के दशहरे को शाही दशहरे का दर्जा मिला हुआ है। यहां का दशहरा 200 साल से भी ज्यादा पुराना है। विजयादशमी के दिन आसपास के गांवों में विराजित ग्राम देवता विग्रह के रूप में अपनी पताका के साथ देवभोग पहुंचते हैं, फिर गांधी चौक पर मौजूद रावण के विशालकाय पुतले की परिक्रमा करते हैं। ये परिक्रमा लंकेश्वरी देवी के नेतृत्व में होती है। इसके बाद जमींदारों के ईष्ट देव कंचना ध्रुवा अपनी पताका से पुतले को मारते हैं, तब जाकर रावण दहन किया जाता है।

दशहरे के दिन जुटती है भारी भीड़।

दशहरे के दिन जुटती है भारी भीड़।

तत्कालीन जमींदार नागेंद्र शाह के पूर्वजों के जमाने से शाही दशहरा मनाने की परंपरा निभाई जा रही है। उस वक्त 84 गांवों के ग्राम देव को बुलाया जाता था, लेकिन अब वही देवी-देवता यहां आते हैं, जिनकी पूजा जमींदार उस वक्त किया करते थे। पिछले 80 सालों से शाही दशहरा मनाने से लेकर देवी-देवताओं के पूजन का जिम्मा जमींदार के वंशजों ने दाऊ परिवार को दिया हुआ है।सबसे पहले दशरथ दाऊ को इसका जिम्मा मिला था, अब उनकी तीसरी पीढ़ी के मुखिया उनके परपोते जयशंकर दाऊ दशहरे की रस्म को निभाते हैं। देवी सेवा के लिए दाऊ परिवार के भरण-पोषण के लिए जमीदारों ने 50 एकड़ से भी ज्यादा कृषि भूमि उन्हें सौंपी थी।

रावण वध की सूचना पर जुटती हैं ग्राम देवियां

रावण वध की सूचना पर ग्राम देवियां यहां जुटती हैं। रावण सेना के दो असुर खर और दूषण की देखरेख में चलने वाला दंडकारण्य क्षेत्र बस्तर का एक बड़ा भाग था। यहां से केवल 150 किलोमीटर दूरी पर बसे देवभोग में भी दंडकारण्य का प्रभाव था। यही वजह है कि देवभोग और कांदाडोंगर में भी बरसों से इसी तरह दशहरा मनाने की परंपरा शुरू हुई। देवभोग के गांधी चौक पर ही मां लंकेश्वरी देवी का मंदिर भी स्थित है। इस इलाके के लोग इन पर बहुत आस्था रखते हैं। साल में एक बार सिर्फ विजयादशमी के दिन ही मंदिर का पट खुलता है। हालांकि हर मंगलवार को बंद पट के बाहर ही लोग पूजा करते हैं। देवी का एक स्थान बरही ग्राम में भी मौजूद है। दशहरा के दिन ग्राम देवियों के पूजन के साथ ही गांववाले मां लंकेश्वरी की भी पूजा करते हैं।

रावण की परिक्रमा करती हैं देवी लंकेश्वरी।

रावण की परिक्रमा करती हैं देवी लंकेश्वरी।

मां लंकेश्वरी को राज देवी का दर्जा मिला हुआ था। जानकारी के मुताबिक, लंकेश्वरी देवी लंका की रक्षा करने वाली लंकिनी ही हैं, जो लंका प्रवेश करने वाले हनुमान के साथ युद्ध में हारकर दण्डकारण्य भाग आई थीं। जमीदार नागेंद्र शाह के पूर्वजों ने दक्षिण भारत के भ्रमण के दौरान देवी की मूर्ति को वहां से लाकर देवभोग के बरही में 1914 में स्थापित किया था। बाद में 1987 में देवभोग के गांधी चौक पर भी मंदिर निर्माण कर लंकेश्वरी देवी को स्थापित किया गया। विजयादशमी के दिन लंकेश्वरी देवी ही रावण दहन की अनुमति देती हैं।

लंकेश की परिक्रमा करते हैं ग्राम देवी-देवता।

लंकेश की परिक्रमा करते हैं ग्राम देवी-देवता।

देवभोग से 35 किमी दूर स्थित जूनागढ़ में भी लंकेश्वरी देवी का मंदिर है। मध्यकालीन इतिहास में पश्चिम ओडिशा यानी उस वक्त के कलिंग क्षेत्र में सोम, छिंदका, नागा, गंगा, नागवंशी राजाओं का उल्लेख है। 18वीं शताब्दी के बाद कलिंग के इस इलाके तक ईस्ट इंडिया कंपनी की पहुंच हो चुकी थी। नागेंद्र शाह का परिवार छुरा से लेकर देवभोग तक जमींदारी संभाल रहा था। जूनागढ़ क्षेत्र के जमींदारों से भी उनके मधुर संबंध थे। वहां से वे देवी लंकेश्वरी की मूर्ति लेकर आए थे।

देवभोग में मंदिर का पट केवल विजयादशमी के दिन खुलता है।

देवभोग में मंदिर का पट केवल विजयादशमी के दिन खुलता है।

देवी लंकेश्वरी को शुरू से ही युद्ध व विजय की देवी का दर्जा मिला हुआ है। बरही के मंदिर में बलि की प्रथा थी। आम जनों का इस मंदिर में प्रवेश वर्जित किया गया है। बरही के मंदिर में कोई पट नहीं है, सिर्फ एक आयताकार विशाल द्वार बनाया गया है, ताकि पुजारी आ-जा सकें। वहीं देवभोग के लंकेश्वरी मंदिर में पट है।

बरही स्थित लंकेश्वरी मंदिर।

बरही स्थित लंकेश्वरी मंदिर।

देवभोग में इसलिए बना मंदिर

1955 में नारायण अवस्थी ने बेटे जीवन लाल के नाम पर देवभोग के मुख्य चौराहे पर 2 एकड़ जमीन खरीदी। इसके बाद से ही परिवार के सदस्य बीमार रहने लगे। घर की बड़ी बहू भगवती देवी अवस्थी को भी दशहरे में तकलीफ शुरू हो जाती थी। कई साल बाद भगवती देवी को एक सपना आया कि खरीदी गई जमीन के उस हिस्से में जहां जमींदारों का खलिहान हुआ करता था, वहां लंकेश्वरी का मंदिर बनवाएं। भगवती देवी के बेटे दुर्गा चरण अवस्थी ने बताया कि बताई गई जगह पर नींव खोदते ही पहले से बना ढांचा दिखाई दिया। उसी पर 1987 में मंदिर बनाकर लंकेश्वरी की स्थापना की गई।