मिशन साउथ: भाजपा ने अपने लिए बंद कर लिया दक्षिण का दरवाजा! अपनी ही रणनीतिक गलती में फंसी पार्टी

नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चुनावी रणनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह की जोड़ी ने बेशक देश के तमाम राज्यों में कई चुनावी करिश्मे दिखाए हैं, यहां तक कि त्रिपुरा समेत उत्तर पूर्वी राज्यों में भी अपना परचम लहराने में कामयाबी पाई है, लेकिन अभी तक दक्षिण भारत में इस जोड़ी को भाजपा का विस्तार करने में अभी तक कामयाबी नहीं मिल पाई है। पार्टी न केवल दक्षिण के दूसरे राज्यों में अपना विस्तार करने में असफल रही है, बल्कि कर्नाटक में अपनी जमी जमाई सरकार को भी गंवा दिया है। कर्नाटक की हार के बाद तो यही संदेश गया है कि भाजपा के लिए दक्षिण भारत के दरवाजे फिलहाल बंद हो चुके हैं। तमिलनाडु में जिस तरह एआईएडीएमके ने भाजपा से नाता तोड़ने का एक तरफा एलान किया है, उससे दक्षिण भारत में उसके विस्तार की रही-सही संभावनाएं भी समाप्त हो गई हैं।  

‘दक्षिण को समझने में भूल कर रही भाजपा’

दक्षिण की राजनीति को करीब से देखने वाले राजनीतिक विश्लेषक और तेलंगाना जर्नलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष बाला स्वामी ने कहा कि भाजपा ने जब सुनील बंसल को दक्षिण भारत के मोर्चे पर लगाया था, तब यही संदेश गया था कि अब वह दक्षिण भारत में अपने विस्तार के लिए बेहद गंभीर है। इसके पहले सुनील देवधर को भी आंध्र प्रदेश के मोर्चे पर लगाकर भी यही संदेश देने की कोशिश की थी। एक बारगी जिस तरह हैदराबाद में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का गठन किया गया, और उसके तुरंत बाद तेलंगाना के हर विधानसभा क्षेत्र में प्रेस कांफ्रेंस कर केसीआर सरकार पर जोरदार हमला बोला गया, यह लगा कि भाजपा अब अपनी रणनीति को अंजाम देने में जुट गई है।

कर्नाटक की गलती तेलंगाना में भी    

बालास्वामी कहते हैं कि भाजपा ने कुछ ऐसे फैसले लेने शुरू कर दिए, जिसका कोई तर्क खुद उसके अपने कार्यकर्ताओं को ही समझ में नहीं आ रहा है। कर्नाटक में जमीनी पकड़ रखने वाले नेताओं बीएस येदियुरप्पा को मुख्य चुनावी रणनीति बनाने से दूर रखना और लिंगायत समुदाय के प्रभावी नेताओं को उनकी सीटों से टिकट न देकर पार्टी ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। कर्नाटक की हार को कांग्रेस की सफलता कम और भाजपा की आत्मघाती राजनीति का परिणाम ज्यादा माना जा रहा है।

उन्होंने कहा कि भाजपा की यही आत्मघाती रणनीति तेलंगाना में भी दिखाई पड़ रही है। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष बंडी संजय कुमार ने अपना पद संभालने के साथ ही राज्य में पार्टी को विस्तार देना शुरू कर दिया था। वे आक्रामक रणनीति के साथ केसीआर सरकार की नाक में दम करने की कोशिश में लगे थे। केसीआर सरकार पर भ्रष्टाचार के मामलों में इतना आक्रामक हमला कांग्रेस ने भी नहीं बोला था। बदले में उन्हें गिरफ्तार होना पड़ा और जेल भी जाना पड़ा।

बंडी संजय कुमार के इस संघर्ष ने राज्य में अचानक भाजपा का ग्राफ तेजी से ऊपर बढ़ा दिया था। दक्षिणी राज्यों में अभी तक अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत कांग्रेस को पीछे छोड़कर वह केसीआर सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती बन गई थी। यह ठीक पश्चिम बंगाल की तरह हो रहा था, जहां भाजपा ने वामपंथी दलों और कांग्रेस को पीछे छोड़कर खुद सबसे प्रमुख विपक्षी पार्टी बन गई। एक पार्टी के लिए यह बड़ी सफलता थी। खुद बंडी संजय कुमार को यहां मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में गिना जाने लगा था। चेहरों की प्रमुखता वाली भारतीय राजनीति में बंडी संजय जैसा नेता मिलना भाजपा के लिए उसके विस्तार के लिए मजबूत कड़ी साबित हो सकता था।

लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से भाजपा ने बंडी संजय कुमार को तेलंगाना से पीछे हटा लिया। यह ठीक कर्नाटक वाली गलती थी जो भाजपा तेलंगाना में भी दोहरा रही थी। लगभग छह महीने के अंदर ही पार्टी ने तेलंगाना में अपना असर खो दिया है। उसके नेताओं का पार्टी छोड़कर कांग्रेस और बीआरएस में शामिल होना लगातार जारी है। एटला राजेंद्र जिसे भाजपा तुरुप के पत्ते की तरह पेश कर रही थी, वे कोई असर छोड़ पाने और भाजपा में मची भगदड़ को रोक पाने में बुरी तरह असफल साबित हो रहे हैं।

आंध्र प्रदेश में भी दुविधा

आंध्र प्रदेश में भी भाजपा की रणनीति अस्पष्ट रही है। जब उसने कांग्रेसी नेता और आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी को अपने खेमे में जोड़ा, तब यह संदेश गया कि वह दक्षिण भारत के इस बेहद महत्त्वपूर्ण राज्य में अपने विस्तार को इच्छुक है। लेकिन यहां भी उसकी रणनीतिक दुविधा सामने दिखाई दे रही है। वह कभी सत्तारूढ़ वाईएसआरसीपी के करीब दिखती है, तो कभी चंद्रबाबू नायडू को साथ लेकर अपने विस्तार की संभावनाएं देख रही है। एक ही राज्य में एक दूसरे के खिलाफ खड़ी पार्टियों से एक साथ सामंजस्य बिठाने की गलत नीति से उसकी कमजोरी सामने दिखाई पड़ी है।

तमिलनाडु में भी रणनीति असफल रही

भाजपा ने दक्षिण के इस सबसे मजबूत राज्य में अपनी पकड़ मजबूत करने के कई प्रयास किए। इसके लिए दक्षिण के मशहूर सिनेमाई चेहरे रजनीकांत तक को साथ लेने की कोशिश हुई। सेंगोल को संसद में स्थापित कर और दक्षिण के कवियों को महिमामंडित कर दक्षिण के लोगों के दिल में स्थान बनाने की कोशिश हुई। पार्टी ने इस राज्य की महिला को अपनी महिला इकाई की कमान सौंपकर भी राज्य के लोगों को संदेश देने की कोशिश की।

लेकिन उदयनिधि स्टालिन के मामले में भाजपा जिस तरह सनातन विरोधियों पर आक्रामक हुई है, और पांच चुनावी राज्यों और लोकसभा चुनाव में जिस तरह उसने इसे एक एजेंडे की तरह इस्तेमाल करने की रणनीति अपनाई है, तमिलनाडु में वह दुविधा में फंस गई है। यहां की द्रविड़ आधारित राजनीति में उसकी यह शैली काम नहीं कर सकती, जबकि अपने मजबूत गढ़ उत्तर भारत में इंडिया गठबंधन की नई ‘मंडलवादी’ चुनौती के सामने अपने पैर जमाए रखने के लिए उसे सनातन विरोधियों पर आक्रामक होना जरूरी है। उसकी इस दुविधा में दक्षिण के किले तमिलनाडु में उसके तीर भोथरे कर दिये हैं।

यदि वर्षों पुरानी उसकी सहयोगी एआईएडीएमके ने इस समय उससे अपना पिंड छुड़ा लिया है, तो इसे अचानक लिया गया फैसला नहीं कहा जा सकता। एआईएडीएमके जानती है कि भाजपा का सनातन विरोधियों पर आक्रामक रुख उसे भी डुबा सकता है, लिहाजा उसने सोच समझकर भाजपा से दूर रहने का फैसला लिया है। यह दोनों पार्टी के नेताओं की आपसी सहमति से हुआ है, हालांकि सामने एक दूसरे के प्रति आक्रामक रुख अपनाया गया है।

लेकिन उत्तर और दक्षिण की राजनीति के मूल चरित्र में अंतर ने भाजपा की उस कमजोरी को उजागर करके रख दिया है, जिसमें वह दक्षिण भारत को समझने में अपेक्षाकृत कमजोर साबित हुई है। उसके आत्मघाती कदमों ने फिलहाल उसके लिए दक्षिण भारत के दरवाजों को उसके लिए बंद कर दिया है।