बिलासपुर। छत्तीसगढ़ में आरक्षण बिल को लेकर मचा घमासान का थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। हाईकोर्ट से राज्यपाल सचिवालय को नोटिस दिए जाने के खिलाफ एक याचिका दायर की गई है। हाईकोर्ट में ही दायर की गई इस याचिका में संवैधानिकता पर सवाल उठाए गए हैं। कहा गया है कि किसी भी केस में आर्टिकल 361 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल को पक्षकार नहीं बनाया जा सकता। कोर्ट में गुरुवार को इस मामले में अंतरिम राहत को लेकर हुई बहस के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया गया है।
दरअसल, राज्य सरकार की ओर से दाखिल याचिका पर सोमवार को हुई सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने राज्यपाल सचिवालय को नोटिस जारी किया था। इसमें दो सप्ताह में जवाब मांगा गया है। मामले की सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तर्क दिया। उन्होंने कहा कि, राज्यपाल को विधेयक रोकने का अधिकार नहीं है। विधानसभा में विधेयक पारित होने के बाद राज्यपाल सिर्फ सहमति या असमति दे सकते हैं। मामले की सुनवाई जस्टिस रजनी दुबे की सिंगल बेंच में हुई थी।
याचिका में कहा- अनुच्छेद 200 का उल्लंघन
दरअसल, विधानसभा में आरक्षण विधेयक पारित होने के बाद से ही राज्यपाल ने रोक रखा है। इसे न तो सरकार को लौटाया गया और न ही इस पर राज्यपाल ने अब तक हस्ताक्षर ही किए हैं। इसे लेकर राज्य सरकार अब हाईकोर्ट पहुंच गई है। सरकार की ओर से कहा गया कि राज्यपाल की ओर से इस पर हस्ताक्षर नहीं किया जा रहा है, जो अनुच्छेद 200 का उलंघन है। राज्य सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और महाअधिवक्ता सतीश चंद्र वर्मा ने पैरवी की है।
राज्य सरकार ने आरक्षण 76 फीसदी किया
राज्य सरकार ने दो दिसंबर को विधानसभा में विधेयक पारित कर आरक्षण 50 से बढ़ाकर 76% कर दिया। इस बिल को राज्यपाल के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा था, लेकिन अब तक सरकार को वापस नहीं मिला है। इसे लेकर राजनीतिक गलियारे में भी आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहा। पोस्टर वॉर भी चली। अब मामला राज्य सरकार हाईकोर्ट में ले गई है। याचिकाकर्ता ने कहा है कि राज्यपाल बिल पास करें या वापस करें। फिलहाल इस मामले में अब अगली सुनवाई 20 फरवरी को होगी।
राज्य के 58 फीसदी आरक्षण को कोर्ट ने किया था खरिज
दरअसल, अधिवक्ता हिमांग सलूजा की ओर से दायर याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकार ने 18 जनवरी 2012 को आरक्षण एससी वर्ग के लिए 12, एसटी के लिए 32 और ओबीसी के लिए 14 प्रतिशत किया था। जिसे हाईकोर्ट ने असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया। इसके बाद सरकार ने जनसंख्या के आधार पर आरक्षण का प्रतिशत 76 फीसदी कर दिया। इसमें आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए चार फीसदी व्यवस्था दी गई।