नई दिल्ली। बंगलूरू में विपक्षी दलों की बैठक से पहले तो सड़कों पर नीतीश कुमार को परेशान करने वाले पोस्टर लगे और बाद में उन्हें विपक्षी खेमे का राष्ट्रीय संयोजक भी नहीं बनाया गया। भाजपा और उनके समर्थकों के मुताबिक, इससे नाराज नीतीश कुमार पटना लौट आए। विपक्षी एकता को चोट न पहुंचे, इसे देखते हुए विपक्षी दलों के साथ-साथ स्वयं नीतीश कुमार भी अपनी वापसी पर सफाई दे चुके हैं, लेकिन कहा जा रहा है कि बंगलूरू की सड़कों पर लगे नीतीश कुमार विरोधी पोस्टर अनायास नहीं थे। यह पोस्टर किसने लगाए यह पता नहीं चल सका।
भाजपा और कांग्रेस दोनों ने एक दूसरे का हाथ इन पोस्टरों के पीछे बताया। भाजपा नेताओं के मुताबिक, ये कांग्रेस का तरीका था, जिसके माध्यम से नीतीश कुमार को बता दिया गया कि वह उन पर आंख बंद करके विश्वास करने के लिए तैयार नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व उनकी भाजपाई खेमे से दूसरे चैनल से हो रही बातचीत से पूरी तरह वाकिफ भी है और सतर्क भी।
पटना के बाद बंगलूरू बैठक में भी उन्हें इंडिया के राष्ट्रीय संयोजक के तौर पर जगह न मिलना भी यह बताता है कि इंडिया में उनकी भूमिका सीमित रहने वाली है। इन आशंकाओं में कितना दम है कि नीतीश कुमार एक बार फिर एनडीए खेमे में पलटी मार सकते हैं? कांग्रेस के मुताबिक, यह भाजपाई प्रचार तंत्र की रणनीति का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य बिहार में अपनी कमजोर रणनीति को मजबूत करना या विपक्ष में फूट डालने की कोशिश है। एनडीए के एक नेता के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी भी नीतीश कुमार को लेकर नरम हैं, लेकिन गृह मंत्री और भाजपा के रणनीतिकार अमित शाह अब नीतीश कुमार की राजनीति को बिहार में परास्त करके खत्म करने पर आमादा हैं।
यह सही बात है कि विपक्षी एकता की सबसे मजबूत पहल नीतीश कुमार ने ही की थी। उन्होंने तेजस्वी यादव के साथ मिलकर न केवल विभिन्न दलों के नेताओं से मुलाकात की, बल्कि सबसे बातचीत कर सभी दलों को एक मंच पर लाने का रास्ता तैयार किया। उनकी ही कोशिश पर विपक्षी दलों की बैठक सबसे पहले पटना में 12 जून को प्रस्तावित की गई थी, लेकिन राहुल गांधी के विदेश में होने और मल्लिकार्जुन खरगे की व्यस्तता के कारण 12 जून की बैठक को स्थगित कर दिया गया।
बाद में लालू प्रसाद यादव की पहल पर कांग्रेस सहित सभी 17 दल 23 जून को पटना बैठक में शामिल हुए। पटना में आने वाले ज्यादातर विपक्षी नेताओं ने नीतीश कुमार की तुलना में लालू प्रसाद यादव को ज्यादा महत्व दिया, क्योंकि विपक्षी खेमे में लालू यादव की विश्वसनीयता कहीं ज्यादा है। बंगलूरू में नीतीश का मजाक उड़ाने वाले पोस्टर विपक्षी दलों के बीच नीतीश कुमार की विश्वसनीयता पर संदेह बढ़ा कर गठबंधन में दरार डालने के उद्देश्य से ही लगाए गए।
हरिवंश-नीतीश कुमार की मुलाकात से भी बढ़ा संदेह
दरअसल, नीतीश कुमार के करीबी हरिवंश अभी भी राज्यसभा में उपसभापति बने हुए हैं। उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के बीच संवाद की एक कड़ी के रूप में देखा जाता है। यही कारण है कि जब विपक्षी एकता की बैठकों के बीच 3 जुलाई को हरिवंश की नीतीश कुमार से मुलाकात हुई तो अफवाहों का बाजार गर्म हो गया।
जदयू की ओर से कहा गया कि नीतीश कुमार सभी विधायकों-सांसदों से मुलाकात कर रहे थे और इसी क्रम में पार्टी के सांसद होने के कारण हरिवंश की नीतीश कुमार से मुलाकात हुई माना जा रहा है कि इस मुलाकात ने नीतीश और एनडीए के तार फिर से जुड़ने की अटकलों को जन्म दिया। हालांकि, दोनों ने ही इसे सामान्य शिष्टाचार भेंट बताया।
क्या नीतीश एनडीए खेमे में आएंगे?
बिहार भाजपा के अध्यक्ष सम्राट चौधरी से यह प्रश्न किया गया कि क्या नीतीश कुमार के एनडीए खेमे में आने की संभावना है तो उन्होंने सीधे तौर पर इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि जो मुख्यमंत्री उनके कार्यकर्ताओं की हत्या करवा रहा हो, उससे उनकी बातचीत की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। भाजपा का एक भी कार्यकर्ता और जनता उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में देखने के लिए तैयार नहीं है। बिहार भाजपा अध्यक्ष की इस दो टूक के बाद भी राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि भाजपा उन्हें अपने खेमे में लाने की कोशिश कर रही है।
भाजपा अब नीतीश को चेहरा बनाने का जोखिम नहीं उठा सकती
बिहार की राजनीति पर बेहद करीब नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक सुनील पांडेय ने कहा कि भाजपा अब नीतीश कुमार को अपना चेहरा बनाने का जोखिम नहीं ले सकती। यदि ऐसा हुआ तो नीतीश कुमार नहीं, बल्कि भाजपा की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। बिहार में नेतृत्व के गहरे संकट से गुजर रही पार्टी यह खतरा नहीं ले सकती। नीतीश कुमार के साथ लगभग दो दशक का एंटी इनकमबेंसी फैक्टर है। वे जहां जाएंगे, यह फैक्टर उसके साथ जुड़ जाएगा। वर्तमान में यह तेजस्वी यादव के साथ जुड़ता दिखाई दे रहा है। यदि भाजपा नीतीश कुमार को अपने साथ लेने की कोशिश कर भी ले तो जनता और भाजपा कार्यकर्ता इस दांव को स्वीकार नहीं करेंगे और भाजपा को इसका राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है।
उन्होंने कहा कि जिस नीतीश कुमार की पहल पर विपक्षी दलों की एकता की नींव पड़ी, उसी की बैठक से पहले उनके विरोध में पोस्टर लगना अनायास नहीं है। जिस रोड से नेताओं को गुजरना था, उस पर सुरक्षा बहुत कड़ी थी। ऐसे में इसे भाजपा की शरारत कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।
सोनिया-लालू के मजबूत होने से कमजोर हुए नीतीश
दरअसल, देश की राजनीति में इस समय दो महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं। पहली तो हिमाचल प्रदेश-कर्नाटक के चुनावों के बाद कांग्रेस मजबूत हुई है और सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की एकता बैठक में उपस्थित होकर अपनी सक्रियता का परिचय दिया है। दूसरी ओर सोनिया के बेहद भरोसेमंद लालू प्रसाद यादव न केवल स्वस्थ हुए हैं, बल्कि विपक्ष की राजनीति में सक्रिय हुए हैं।
नीतीश कुमार को अब तक इसी बात का लाभ मिल रहा था कि विपक्ष में कोई बड़ा नेता विपक्षी दलों की एकता का नेतृत्व करने के लिए उपलब्ध नहीं था। सोनिया गांधी, शरद पवार और लालू प्रसाद यादव अपने स्वास्थ्य के कारणों से राजनीतिक रूप से कम सक्रिय हो रहे थे तो दूसरा कोई नेता इस कद का दिखाई नहीं पड़ रहा था, जो विपक्षी दलों की एकता की गाड़ी को आगे बढ़ा सके। इस दौर में नीतीश कुमार विपक्ष के एक बड़े नेता के तौर पर उभर रहे थे, लेकिन सोनिया और लालू प्रसाद यादव की सक्रियता ने नीतीश कुमार की भूमिका को कमजोर कर दिया।
नीतीश कुमार अब भी सबसे बड़े नेता: जदयू
जदयू नेता सत्य प्रकाश मिश्रा ने कहा कि नीतीश कुमार के एनडीए खेमे में जाने की बातें केवल एक साजिश है जिसे भाजपा के आईटी सेल ने फैलाया है। यह विपक्षी एकता में भ्रम फैलाने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं है। सच यह है कि उन्होंने ही विपक्षी एकता का सूत्र पिरोया है और अब भी वे इसके सबसे बड़े नेताओं में से एक हैं। वे न केवल अनुभवी हैं, बल्कि सभी विपक्षी दलों से संपर्क रखने के कारण सबके लिए स्वीकार्य भी हैं। जहां तक इंडिया के राष्ट्रीय संयोजक पद की बात है, यह सबके समर्थन और सहमति से तय होगा। इसे लेकर कोई विवाद नहीं होगा। भाजपा को भी इस गलतफहमी से बाहर आ जाना चाहिए कि नीतीश कुमार कभी उनकी तरफ आ सकते हैं।