नई दिल्ली। जयंत चौधरी को पटाने की भाजपा की कोशिशें नाकाम हो गई हैं और वे विपक्षी दलों की बेंगलुरु बैठक में हिस्सा लेने के लिए 17-18 जुलाई को कर्नाटक पहुंच रहे हैं। उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के बीच बढ़ती दूरियों के बीच भाजपा कोशिश कर रही थी कि छोटे चौधरी उसके पाले में आ जाएं और पार्टी के ‘मिशन 80’ को सफल बनाने में अपना योगदान दें। लेकिन फिलहाल छोटे चौधरी ने विपक्षी खेमे में ही रहने का निर्णय किया है।
भाजपा के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण
विपक्षी दलों की एकता के बीच माना जा रहा है कि कुछ राज्यों में भाजपा को सीटों का नुकसान हो सकता है। इसमें बिहार, महाराष्ट्र से लेकर प. बंगाल तक के राज्य शामिल हैं। यही कारण है कि भाजपा ने अपने उन सभी गढ़ों को पूरी मजबूती से संभालने की रणनीति बनाई है, जहां पर उसे 2014 और 2019 में अच्छी सफलता मिली थी। इसमें यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली जैसे राज्य शामिल हैं।
उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए मजबूत गढ़ के रूप में उभरा है। लेकिन वह अपनी पकड़ और ज्यादा मजबूत करने के लिए जयंत चौधरी और ओम प्रकाश राजभर को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है। राजभर उसको पूर्वांचल में मजबूत करने में मदद कर सकते हैं तो जयंत चौधरी पश्चिम में जाट वोटों को एकजुट करने में भाजपा को सहयोग कर सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो भाजपा का पूर्व से लेकर पश्चिम तक का किला विपक्षी दलों के लिए अभेद्य हो जाएगा।
भाजपा को दोहरी चोट, राजभर के बाद चौधरी भी किनारे
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर के एनडीए खेमे में आने को अब महज औपचारिकता माना जा रहा है। सीटों के मामले को लेकर उनकी अमित शाह से बातचीत होने की अटकलें लगाई जा रही हैं। दोनों दलों के बीच सीटों के तालमेल को लेकर असमंजस बनी हुई है। इसी बीच राजभर ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि एनडीए की 18 जुलाई को होने वाली बैठक में अभी वे हिस्सा लेने नहीं जा रहे हैं।
जयंत चौधरी के भी भाजपाई खेमे में आने की अटकलें लगाई जा रही थीं। चर्चा है कि भाजपा ने उन्हें दो लोकसभा सीटें देने का भी ऑफर कर दिया था। इसके बाद ही उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी ने यह बयान दिया था कि वे जयंत चौधरी को साथ लाने के लिए तैयार हैं। यदि वे भाजपा गठबंधन का हिस्सा बनना चाहें, तो उनका स्वागत है। लेकिन फिलहाल अपने कोर वोटर के नुकसान और विपक्ष में बेहतर संभावना को देखते हुए जयंत चौधरी ने भाजपा के ऑफर को ना कह दिया है।
क्या है कारण?
राष्ट्रीय लोकदल के एक नेता ने बताया कि उनकी पार्टी का बड़ा जनाधार जाटों और मुसलमानों के साथ आने के बाद बनता है। दोनों ही जातियों के किसानों ने अजित चौधरी के रहते ही जयंत चौधरी को अपने नेता के रूप में देखना शुरू कर दिया था। शुरूआती दौर में कुछ गड़बड़ी के बाद जयंत चौधरी ने अपने इस वोट बैंक की राजनीति करने का निर्णय लिया था।
2019-20 के किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने किसानों के बीच यह कसम खाई थी कि वे भाजपा के साथ कभी नहीं जाएंगे। यदि वे एक बार फिर भाजपा के खेमे में जाते हैं, तो उन्हें अपने लोगों के बीच गलत दृष्टि से देखा जा सकता है। छोटे चौधरी यह नुकसान उठाने की स्थिति में नहीं हैं।
नेता के अनुसार, भाजपा की चुनावी रणनीति मुस्लिम विरोध के इर्द-गिर्द बनती है। उसने 2014 से लेकर 2022 तक इसी विरोध के दम पर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से के जाटों को अपने साथ लाने में कामयाबी पाई है। इसके कारण वह अपनी चित-परिचित शैली को छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकती, जबकि जयंत चौधरी का जाटों के बाद सबसे बड़ा समर्थक मुसलमान मतदाता ही हैं। यही कारण है कि जयंत चौधरी चाहकर भी भाजपा के साथ नहीं जा सकेंगे।